कुण्डलिनी
आचार्य संजीव 'सलिल'
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करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत..
करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत.
वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी.
आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई.
कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन.
'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन.
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सदा समय पर जो करे, काम और आराम.
मिले सफलता उसी को., वह पाता धन-नाम.
वह पाता धन-नाम, न थक कर सो जाता है.
और नहीं पा हार, बाद में पछताता है.
कहे 'सलिल' कविराय, न खोना बच्चों अवसर.
आलस छोडो, करो काम सब सदा समय पर.
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कविता होती है 'सलिल', जब हो मन में पीर.
करे पीर को सहन तू, मन में धरकर धीर.
मन में धरकर धीर, सभी को हिम्मत दे तू.
तूफानों में डगमग नैया, अपनी खे तू.
विजयी वह जिसकी न कभी हिम्मत खोती है.
ज्यों की त्यों चादर हो तो कविता होती है.
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समय-समय की बात है समय-समय का फेर.
कभी देर होती भली, कभी देर अंधेर.
कभी देर अंधेर, हडबडी भी घातक है.
पुण्य हुआ जो आज, वही कल क्यों घातक है?
'सलिल' मात में जीत, जीत क्यों हुई मात है?
किसको दें क्यों दोष? समय की सिर्फ बात है.
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अच्छी कुण्डलिनी जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है।
ReplyDeletedhanyavad
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