Saturday, January 30, 2010

    
दैनिक जागरण, पटना १८-१-१०
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कुण्डलिनी


आचार्य संजीव 'सलिल'


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करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत..

करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत.

वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी.

आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई.

कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन.

'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन.

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सदा समय पर जो करे, काम और आराम.

मिले सफलता उसी को., वह पाता धन-नाम.

वह पाता धन-नाम, न थक कर सो जाता है.

और नहीं पा हार, बाद में पछताता है.

कहे 'सलिल' कविराय, न खोना बच्चों अवसर.

आलस छोडो, करो काम सब सदा समय पर.

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कविता होती है 'सलिल', जब हो मन में पीर.

करे पीर को सहन तू, मन में धरकर धीर.

मन में धरकर धीर, सभी को हिम्मत दे तू.

तूफानों में डगमग नैया, अपनी खे तू.

विजयी वह जिसकी न कभी हिम्मत खोती है.

ज्यों की त्यों चादर हो तो कविता होती है.

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समय-समय की बात है समय-समय का फेर.

कभी देर होती भली, कभी देर अंधेर.

कभी देर अंधेर, हडबडी भी घातक है.

पुण्य हुआ जो आज, वही कल क्यों घातक है?

'सलिल' मात में जीत, जीत क्यों हुई मात है?

किसको दें क्यों दोष? समय की सिर्फ बात है.
 
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Thursday, January 28, 2010

विशेष आलेख: डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

विशेष आलेख:

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.

संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. असंस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.

'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.

यत्नोस्यां कविना कार्यः को लं कारो नया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.

शब्दालंकारों की छटा:

डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.

शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.

'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.

एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.

अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .

गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .

इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'

महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.

समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.

शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.

'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'

चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है. बानगी देखें:

डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.

प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.

रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.

डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.

कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.

'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.

डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारन उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.

'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.

स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.

तत्सम-तद्भव शब्द-भ्नादर के धनि डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारन गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.

सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.

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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.com

अनुज कुमार

अनुज कुमार जी कौन है अपना परिचय दें

Monday, January 25, 2010

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:



सारा का सारा हिंदी है


आचार्य संजीव 'सलिल'

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जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.

लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.

गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,

ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.

लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....



मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.

प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.

स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.

बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.

पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.

गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.

अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.

ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.

कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....



सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.

झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.

कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.

गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.

रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.

आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.

शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.

तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.

रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com/

Friday, January 22, 2010

ग़ज़ल --बहुत हैं मन में लेकिन --संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल


संजीव 'सलिल'


बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.

पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..



लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.

हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..



तुम्हारे नेह के नाते न कोई तोड़ पायेगा.

दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..



छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-

'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..



जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.

'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..



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Wednesday, January 20, 2010

बासंती दोहा ग़ज़ल -संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल



संजीव 'सलिल'


स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..


पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..


महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..


नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..


नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..


मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..


ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..


घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..


बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निएमल-विमल सँवार..


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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Tuesday, January 19, 2010

मुक्तिका:: खुशबू संजीव 'सलिल'

मुक्तिका




खुशबू



संजीव 'सलिल'



कहीं है प्यार की खुशबू, कहीं तकरार की खुशबू..

कभी इंकार की खुशबू, कभी इकरार की खुशबू..



सभी खुशबू के दीवाने हुए, पीछे रहूँ क्यों मैं?

मुझे तो भा रही है यार के दीदार की खुशबू..



सभी कहते न लेकिन चाहता मैं ठीक हो जाऊँ.

उन्हें अच्छी लगे है दिल के इस बीमार की खुशबू.



तितलियाँ फूल पर झूमीं, भ्रमर यह देखकर बोला.

कभी मुझको भी लेने दो दिले-गुलज़ार की खुशबू.



'सलिल' थम-रुक न झुक-चुक, हौसला रख हार को ले जीत.

रहे हर गीत में मन-मीत के सिंगार की खुशबू..



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Friday, January 15, 2010

नर्मदा नामावली नर्मदा नामावली

नर्मदा नामावली


नर्मदा नामावली


पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.

शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.

शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.

अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.

आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.

जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.

विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.

कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.

शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.

मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.

शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.

नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.

सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.

रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.

शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.

नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.

बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.

विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.

रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.

सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.

अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.

शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.

चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.

वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.

मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.

नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.

शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.

विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.

गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.

मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.

रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.

यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.

दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.

महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.

अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.

कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.

तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.

क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.

साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.

सलिल-इष्ट माँ भवानी नरमदा.


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Tuesday, January 12, 2010

वदीZ वाले गुण्डा!

वदीZ वाले गुण्डा!

वदीZ पर तमगे नहीं टंगे हैं दाग

(लिमटी खरे)


आजाद हिन्दुस्तान में देश की जनता अमन चैन से गुजर बसर कर सके इसलिए हर साल सैकडों पुलिस के जवान अपने प्राणों की आहूति दिया करते हैं। पुलिसकर्मियों के इस बलिदान के चलते लोगों की नजरों में पुलिस की छवि उजली उजली नजर आती है। पुलिस पर लोगों का भरोसा इसी के चलते कायम हो पाता है। विडम्बना यह है कि इन्हीं के बीच कुछ भेडिए भी खाकी पहन कर लोगों के मन में खाकी के प्रति रोष और असंतोष भर देते हैं।

सालों पहले एक ख्यातिलब्ध लेखक की नावेल ``वदीZ वाला गुण्डा`` पढी थी। उस वक्त पुलिस में इस तरह के खाकी गुण्डों की तादाद इक्का दुक्का हुआ करती थी। आज के समय में पुलिस में वदीZ वाले गुण्डों की खासी तादाद हो गई है, जो रियाया का अमन चैन लूट रहे हैं। इतना सब होने के बाद भी अमन चैन से लोगों को रहने देने का दावा करने वाले हाकिमों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती है। देश के शासक जनता को महफूज रखने के बजाए इन बर्बर पुलिसियों के दागदार सीने पर मेडल पर मेडल लटकाए जा रहे हैं।

राष्ट्रपति का उत्कृष्ट सेवा पदक उन पुलिसियों को दिया जाता है जो 15 साल की सेवा बेदाग पूरी कर चुके हों और उनका सालाना गोपनीय प्रतिवेदन (एसीआर) आउट स्टेंडिंग श्रेणी का हो। इसके अलावा उस पर कोई आपराधिक प्रकरण न चल रहा हो, एवं पुलिस प्रमुख की संस्तुति भी इसके साथ होना जरूरी है। इस तरह के प्रकरण को राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय गृह विभाग को भेज दिया जाता है।

जहां चयन समिति द्वारा इन नामों पर विचार कर उन श्रेष्ठ अधिकारियों का चयन करती है जो वाकई इस पदक के हकदार हों। यह समिति अपनी अनुशंसा के बाद इसे दूसरी समिति को नाम के साथ प्रतिवेदन भेजती है, जहां एक बार फिर स्क्रीनिंग के उपरांत नामों को चुन कर उसे गृह सचिव के माध्यम से राष्ट्रपति सचिवालय को भेज दिया जाता है। महामहिम राष्ट्रपति की मंजूरी के उपरांत गणतंत्र या स्वाधीनता दिवस पर इन पदकों की घोषणा की जाती है।


हाल ही में रूचिका के मामले में चर्चा में आए 1965 बेच के हरियाणा काडर के पुलिस अधिकारी शंभू प्रसाद सिंह राठौर को एसा ही पदक मिला था। अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के निष्ठुर और अमानवीय सोच रखने वाले अधिकारी को पदक देने के लिए उसके नाम पर विचार के लिए इतनी सीिढयां लांघी गई हों, फिर भी कोई इस दागी अफसर को पहचान न पाया हो यह बात आसानी से गले नहीं उतरती। दरअसल दोष भारतीय व्यवस्था में ही है।

राठौर अकेले नहीं हैं, जिन्होने वदीZ के रौब के चलते मनमानी की हो। देश का पुलिस महकमा राठौरों से अटा पडा है। पुलिस के डंडे के आगे किसी की नहीं चलती। हरियाणा काडर के ही 76 बेच के आईपीएस अधिकारी और सूबे में जेल प्रशासन के महानिदेश रहे रविकांत शर्मा इन दिनों तिहाड जेल में सजा काट रहे हैं, उन पर पत्रकार शिवानी भटनागर की हत्या का ताना बाना बुनने के लिए प्रमुख दोषी करार दिया गया है।


87 बेच के गुजरात काडर के अधिकारी डीजी बंजारा को शेहराबुद्दीन शेख को लश्कर ए तैयबा का आतंकवादी मानकर फर्जी एनकाउंटर करने का आरोप है। फिलहाल ये हिरासत में हैं और इन पर मुकदमा दायर है। महाराष्ट्र काडर के क्राईम बांच के उपयुक्त बीएन साल्वे एसे अधिकारी हैं जो एक माफिया डान की क्रिसमस पार्टी में ठुमके लगाते दिखे थे। इन्हें निलंबित किया गया है।

यहीं के 71 बेच के अधिकारी एस.एस.विर्क को पुलिस महानिदेशक रहते हुए ही गिरफ्तार किया गया था। विर्क की गिरफ्तारी देश में अपनी तरह की पहली मिसाल थी कि मुखिया पद पर रहते किसी को पकडा गया हो। इन पर पद का दुरूपयोग का संगीन आरोप था। इतना ही नहीं देश की रक्षा करने वाले कांधों पर मादक पदार्थों की तस्करी के आरोप भी लगते रहे हैं। 95 बेच के जम्मू काश्मीर काडर के अधिकारी शाजी मोहन का हाल कुछ यही बयां करता है। मोहन को चंडीगढ में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो में जोनल डारेक्टर बनाया गया था। पिछले साल जनवरी में वे मुंबई में आतंकवाद निरोधक बल के हाथों हेरोईन के साथ पकडे गए थे।

पुलिस के डर से उसकी पकड से आम अपराधी फरारी काटते हैं। पर यहां तो भारतीय पुलिस सेवा के अफसर ही फरारी काट रहे हैं। 97 बेच के राजस्थान काडर के आईपीएस अधिकारी मधुकर टंडन पर आरोप है कि उन्होंने राजस्थान पुलिस महानिदेशक रहते हुए दौसा जिले की एक आदिसावी महिला का अपहरण कर उसके साथ नोएडा में बलात्कार किया। फिलहाल टंडन पिछले 13 सालों से फरार हैं।


झारखण्ड के 75 बेच के अधिकारी पी.एस.नटराजन को पांच साल पहले एक स्टिंग आपरेशन में पकडा गया था। नटराजन पर आरोप है कि उन्होंने भी एक आदिवासी महिला के साथ मुंह काला किया है। फिलहाल नटराजन फरार ही हैं। यूटी काडर के 77 बेच के अधिकारी आर.के.शर्मा की कहनी भी दिलचस्प है। 2002 में उन्हें घर में काम करने वाली एक बाई के साथ बलात्कार करने के आरोप में पकडा गया था, वे फिलहाल अपनी सजा काट रहे हैं।

हरियाणा राज्य दागी अधिकारियों से अटा पडा है। एसपीएस राठौर, रविकांत शर्मा के साथ ही साथ यहां 77 बेच के अधिकारी और राज्य के पुलिस महानिरीक्षक रहे हरीश कुमार को पुलिस ने धोखाधडी के आरोप में पकडा था, वे तिहाड जेल में सजा काट रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बी.एस.थींड 74 बेच के आईपीएस हैं। इन पर एक व्यवसायी अशोक मित्तल से जबरिया वसूली का आरोप है। गिल भी पीछे नहीं हैं, उन पर एक महिला अधिकारी से छेडछाड का संगीन आरोप है।

दागदार वदीZ के एक नहीं अनेको उदहारण मौजूद हैं देश के हर राज्य में। आश्चर्य तो तब होता है, जब इस तरह के दागी अधिकारी अपने सीने पर वदीZ को गौरवािन्वत करने वाले मेडल पहनने का दुस्साहस कैसे कर पाते हैं। क्या इनकी अंतरात्मा इन्हें कुछ नहीं कहती।

पुलिस के चंद अधिकारियों के इस तरह निरंकुश होने के पीछे सबसे बडी वजह यह है कि इन्हें जनसेवकों का खासा प्रश्रय प्राप्त हो जाता है। राजनीति, पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के घोंटे में अगर मीडिया का तडका भी लग जाए तो राठौर जैसी शिक्सयतों का उदय होता है, जो रूचिका जैसी निरीह बाला को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं।

मीडिया भले ही सालों बाद रूचिका मामले को उजागर करने के लिए अपनी पीठ थपथपा रही हो पर मीडिया तब कहां था जब यह घटना घटी थी। कहने का तातपर्य महज इतना ही है कि मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा खम्बा माना गया है, और मीडिया आज के समय में कार्पोरेट बजार में तब्दील हो गया है। यही कारण है कि वदीZ वाले गुण्डों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं, तथा रूचिकाओं की आत्महत्याओं के प्रकरणों में हो रही है बढोत्तरी।


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Monday, January 11, 2010

बाबूराज में दम घुटता विज्ञान का


बाबूराज में दम घुटता विज्ञान का


(लिमटी खरे)

देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की चिंता बेमानी नहीं कही जा सकती है, जिसमें उन्होंने कहा है कि विज्ञान के लिए बाधा न बने नौकरशाही। प्रधानमंत्री ने काफी सोच समझकर यह वक्तव्य दिया है। अपने लगभग साढे छ: साल के प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह भली भांति समझ चुके होंगे कि भारत गणराज्य की व्यवस्थाओं में बाबूराज और नौकरशाही की लाल फीताशाही की जडें किस कदर मजबूत हो चुकी हैं। वैसे देखा जाए तो प्रधानमंत्री ने यह बात करकर भारतीय मूल के नोबेल पुरूस्कार विजेता वेंकटरमन रामकृष्णन की बात को ही दुहराया है।


सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री की अपील का कोई असर होगा। एक जमाना था जब प्रधानमंत्री या देश के महामहिम राष्ट्रपति के आव्हान का आम जनता पर जबर्दस्त असर होता था। चाहे स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश को संबोधित कर रहे हों अथवा गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर महामहिम राष्ट्रपति का देश के नाम संबोधन हो, देशवासी आकाशवाणी या दूरदर्शन पर इसे पूरे ध्यान से सुना करते थे। देश के आला नेताओं के देश निर्माण के सपने को आम जनता अंगीकार कर सुनहरा भविष्य गढने का ताना बाना बुना करती थी। आज समय पूरी तरह बदल चुका है। अब बडे नेताओं की अपील में भी राजनीति की बू आती है।

97वी भारतीय विज्ञान कांग्रेस (आईसीएस) के उद्धाटन पर प्रधानमंत्री डॉ.एम.एम.सिंह ने विज्ञान पर नौकरशाहों की बाधा बनने की प्रवृत्ति को दुर्भाग्यपूर्ण ही बताया है। देश में प्रतिभा के विकास के लिए विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने का आव्हान भी किया है वजीरे आजम ने। पीएम ने कहा है कि कंसोलिउेशन ऑफ यूनिवर्सिटी रिसर्च और इनोवेशन एंड एक्सीलेंस को इसलिए आरंभ किया गया है ताकि अधिक से अधिक महिलाएं विज्ञान के क्षेत्र में अपना सुनहरा भविष्य बनाने के लिए आकषिZत हो सकें। निश्चित तौर पर वजीरे आला ने एक बहुत ही निहायत सामयिक मुद्दे की ओर ध्यान आकषिZत किया है। विडम्बना यह है कि नौकरशाही के मकडजाल से इसे मुक्त कराने की बात खुद सरकार के मुखिया के श्रीमुख से निकल रही है।


यक्ष प्रश्न आज भी वही खडा हुआ है कि देश विज्ञान की स्थिति क्या है। अस्सी के दशक के आरंभ के साथ ही युवाओं में विज्ञान के बजाए प्रोद्योगिकी की ओर रूझान बढता चला गया। यही कारण है कि देश में विज्ञान पिछड गया है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जबकि स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव ने अपने रेल मंत्री के कार्यकाल में भारतीय रेल के स्टेशनों को गंदगी से मुक्त कराने के लिए खडी रेल गाडी में शौच न करने की समस्या उठाई थी।

लालू की इस समस्या का निदान चैन्नई की एक बारह साल की बाला माशा नजीम ने चुटकी में खोज दिया था। आठवीं दर्ज में पढने वाली माशा के अनुसार रेल्वे स्टेशन आते ही जलमल निकासी का पाईप एक रेल में जुडे एक संग्रहण टेंक से स्वत: ही जुड जाएंगे। बाद में रेल्वे स्टेशन के गुजरने के बाद खुले स्थान में यह मलबा चालक द्वारा कहीं गिरा दिया जाएगा। तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति कलाम ने भी इस तकनीक को सराहा था।

एसा नहीं कि देश में तेज दिमाग बच्चों की कमी हो। दरअसल हिन्दुस्तान की शिक्षा पद्यति व्यवहारिक ज्ञान की ओर ध्यान देने वाली नहीं है। आमिर खान अभिनीत ``थ्री ईडियट्स`` चलचित्र कमोबेश इसी पर केंद्रित है। एक पुराने वाक्ये का जिकर यहां प्रासंगिक होग। मध्य प्रदेश की सीमा से लगे महाराष्ट्र के कामठी नागपुर मार्ग पर एक ओव्हलोड ट्रक रेल्वे के अंडरपास में फंस गया। इसे निकालने काफी जुगत लगाई गई। मोटी पगार पाने वाले इंजीनियर्स ने भी हाथ डाल दिए।

मामला चूंकि देश के सबसे लंबे और व्यस्ततम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात का था सो लगातार यातायात बाधित होने पर कोहराम मच गया। अंतत: सभी पहलुओं पर गौर फरमाने के बाद आला इंजीनियर्स ने रेल्वे के पुल को उपर से तोडकर लारी को बाहर निकालने पर सहमति जताई। यह मामला काफी खर्चीला था, एवं इससे नागपुर से बरास्ता रायपुर पूर्वी भारत का संपर्क रेल से लंबे समय के लिए अवरूद्ध होने की आशंका भी थीं


तभी वहां से एक चरवाहा गुजरा जिसने मामले की नजाकत को देखकर एसा तरीका बताया कि विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के स्नातक इंजीनियर्स का सर चकरा गया। उसने फंसे ट्रक के सभी पहियों की हवा निकालने का सुझाव दिया और कहा कि इससे लारी छ: इंच नीचे आ जाएगी फिर आसानी से उसे खींचा जा सकेगा। इसके बाद से रेल्वे अंडरपास के दोनों सिरों पर लोहे के बेरियर का इस्तेमाल किया जाने लगा।

कहने का तातपर्य महज इतना सा है कि पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही देश भारत के दिमाग की दाद देते हैं किन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक ही है। युवा पीढी में आज विज्ञान के बजाए प्रोद्योगिकी की ओर रूझान साफ दिखता है। युवाओं के लिए आज भी इंजीनियर की उपाधि का ग्लेमर बरकरार है। कंप्यूटर के युग में इंफरमेशन तकनालाजी (आईटी) इनकी पसंद बन गई है।

तेजी से बदलते युग में सरकारी और गैरसरकारी क्षेत्रों में विज्ञान से संबंधित विषयों पर रोजगार के अवसर नगण्य हो गए हैं। अससी के दशक में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साईंस कम्युनिकेशन एण्ड इंफरमेशन रिसोZसेज की पत्रिका ``विज्ञान प्रगति`` स्कूलों में खासी लोकप्रिय हुई थी। महज सत्तर पैसे (लगभग बारह आने) में आने वाली इस पत्रिका से विद्यार्थियों को विज्ञान के बारे में रोचक जानकारियां मिला करती थीं।

विडम्बना ही कही जाएगी कि आज इंजीनियरिंग की उपाधि हासिल करने वो पचास फीसदी से अधिक विद्यार्थी अपने मूल काम से इतर अन्य रोजगार ढूंढने पर मजबूर हैं। भारतीय प्रशासिनक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में ही देखा जाए तो इंजीनियर स्नातकों की बाढ सी आई हुई है। इस बारे में 1985 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री कृष्ण चंद पंत का एक वक्तव्य का जिकर लाजिमी होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में इंजीनियर की डिग्री धारण करने वाले पचास फीसदी छात्रों द्वारा एसे कामों को रोजगार का जरिया बनाया हुआ है, जिसमें शोध और विकास का दूर दूर तक लेना देना नही है।

सत्तर के दशक की समाप्ति तक हिन्दुस्तान के हर सूबे में विज्ञान को काफी प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक विज्ञान प्रदर्शनियों की धूम रहा करती थी। विज्ञान विषय पर वाद विवाद के साथ ही साथ विभिन्न माडलों के माध्यम से विद्यार्थियों को विज्ञान के चमत्कारों से रूबरू करवाया जाता था। इसके बाद नौकरशाही और बाबूराज के बेलगाम घोडों ने विज्ञान का रथ रोक ही दिया। अब बमुश्किल ही विज्ञान प्रदर्शनियों के बारे में कहीं सुनने को मिल पाता है।

प्रधानमंत्री अगर वाकई चाहते हैं कि देश में विज्ञान के प्रति युवा आकषिZत हों तो उन्हें लगभग तीस साल पुराना इतिहास खंगालना पडेगा, और देखना होगा कि सत्तर के दशक तक विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों की रूचि का कारण क्या था, और आज चाहकर भी शिक्षण संस्थाएं उनमें विज्ञान के प्रति आकर्षण क्यों पैदा नहीं कर पा रही हैं।

जहां तक प्रवासी भारतीय वैज्ञानिकों की वतन वापसी का सवाल है, तो इसका तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए। भारत के दिमाग का इस्तेमाल कर विश्व के अनेक समृद्ध देश अपने आप को बहुत आगे ले जाते जा रहे हैं। भारत सरकार को चाहिए कि भारत वर्ष में एसा माहौल तैयार करे ताकि देश की प्रतिभाएं देश में ही रहें विदेश पलायन के बारे में उनके मानस पटल पर कभी विचार तक न आए।

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यर्थाथ के मैदान में चक दे!

यर्थाथ के मैदान में चक दे!


खेलों को बढावा देने भारत सरकार को बनानी होगी व्यवहारिक नीति

(लिमटी खरे)


शहरूख खान अभिनीत ``चक दे`` चलचित्र ने भारत के होनहार किन्तु अवसर न मिलने वाले खिलाडियों के मन में एक आशा की किरण जगाई थी। चलचित्र में कुछ इसी तरह की बातों का शुमार किया गया था। सुदूर ग्रामीण अंचलों में छिपी प्रतिभाओं को लगने लगा था कि इस फिल्म के आने के बाद देश पर राज करने वाले शासकों का ध्यान उनकी ओर जाएगा और वे भी कुछ कर दिखाएंगे।

वस्तुत: एसा कुछ हो नहीं सका। खिलाडियों की आशाओं पर समय के साथ तुषारापात हो गया। गांवों कस्बों में पलने वाले खिलाडी एक बार फिर गुमनामी के अंधेरों में खोने लगे। कभी भारत की आन बान और शान का प्रतीक रही हाकी भी रसातल से अपने आप को उबारने में पूरी तरह नाकाम रही। आज के समय में हाकी का खेल गली मोहल्लों मेें भी दम तोड चुका है।


वहीं दूसरी ओर क्रिकेट का खेल पैसा बनाने का शानदार जरिया बनकर उभरा। देश विदेश में क्रिकेट प्रेमियों की संख्या में दिनों दिन इजाफा होने लगा। टेस्ट क्रिकेट के बाद एक दिवसीय क्रिकेट ने लोगों के दिलो दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला। इसके प्रायोजकों की संख्या में जबर्दस्त उछाल दर्ज किया गया। मीडिया ने भी हाकी को उभारने के बजाए क्रिकेट को ही सरताज बनाने का प्रयास किया।


इसके बाद बारी आई फटाफट क्रिकेट की। ट्वंटी ट्वंटी ने लोगों को अपना दीवाना बना लिया। देश में अब तो ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट टीम की बाकायदा बोलियां भी लगने लगीं। देश के धनपतियों ने क्रिकेट के हुनरबाजों की तबियत से बोलियां लगाकर इसे और अधिक हवा दी। जनवेवकों के साथ रूपहले पर्दे के आदाकारों ने भी इस खेल में अपनी जबर्दस्त रूचि दिखाई है। आज क्रिकेट का जादू देशवासियों के सर चढकर बोल रहा है।

चक दे में जब महिला हाकी टीम को चैंपियनशिप में जाने से मना कर दिया जाता है तो उसके बाद ज्यूरी महिला टीम को पुरूष हाकी टीम से खेलने के लिए चुनौति देती है। यद्यपि यह हर प्रकार से अनुचित था कि महिलाओं को पुरूषों के सामने खडा कर उनकी परीक्षा ली जाए। फिर भी महिला हाकी टीम के शानदार प्रदर्शन के आगे कमेटी को झुकना होता है।


कमोबेश इसी तर्ज पर गुजरात में नई परंपरा का आगाज होने जा रहा है। भारतीय क्रिकेट के इतिहास में यह संभवत: पहला मौका होगा जबकि महिला क्रिकेट टीम द्वारा पुरूष क्रिकेट टीम को चुनौति दी जाएगी। बडोदरा में आयोजित डी.के.गायकवाड क्रिकेट प्रतियोगिता में लोग इस तरह का नजारा पहली बार ही देखेंगे।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का यह पहला आधिकारिक आयोजन है। इसमें अंडर 14 महिला क्रिकेट टीम अपने हमउमर युवाओं के सामने अपना जौहर दिखाएगी। कहने को तो भारतीय महिला क्रिकेट टीम को सडी गली टीम का दर्जा देने में बीसीसीआई द्वारा कोई कोर कसर नहीं रख छोडी है।


भारतीय महिला क्रिकेट टीम 2005 में वूमेंस वल्र्ड कप में रनरअप, 2009 में आइसीसी ट्वंटी ट्वंटी में सेमीफाईनल तक पहुचंी थी। महिलाओं के एशिया कप पर भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने चार बार अपना नाम लिखा है। फिर क्या कारण है कि जया शर्मा, झूलन गोस्वामी, नीतू डेविड आदि नामी गिरमी महिला खिलाडियों को सचिन तेंदुलकर और महेंद्र सिंह धोनी की तरह लोगो की जुबान पर नहीं चढ सकीं। हमें इसके कारण खोजने ही होंगे।

एक तरफ जहां देश को इंदिरा गांधी जैसी सफल और सुलझी महिला प्रधानमंत्री, 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, लोकसभाध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की आसंदी पर सुषमा स्वराज जैसी नेत्रियां मिलीं हैं तब फिर हाकी और क्रिकेट में महिलाएं प्रसिद्धि पाने से क्यों चूक रहीं हैं।

देखा जाए तो टेबिल टेनिस, बेडमिंटन और लॉन टेनिस में महिलाओं को मिक्स डबल्स खेलने की इजाजत है। सिंगल्स में भी महिलाओं ने पुरूष क्रिकेट खिलाडियों को प्रसिद्धि के मामले में काफी पीछे छोड दिया है। रही बात क्रिकेट और शतरंज की तो महिलाओं को कमतर आंककर उन्हें पुरूषों के सामने खडे होने का मौका क्यों नहीं दिया जाता है यह बात आज भी यक्ष प्रश्न की तरह ही खडी हुई है।


पुरूष प्रधान भारतीय संस्कृति में महिलाओं के साथ दोयम दर्ज का ही व्यवहार सदा से होता आया है। महिलाओं को आज भी बच्चे पैदा करने की मशीन और चौका चूल्हा करने के लिए ईश्वर की रचना ही माना जा रहा है। भारतीय पुरूष भूल जाता है कि अंतरिक्ष में जाने वाली कल्पना चावला भी इसी भारत देश में जन्मी एक कन्या थी।

बहरहाल बीसीसीआई द्वारा गुजरात के बडोदरा में आयोजित होने वाले इस विपरीत लिंगी क्रिकेट मैच की सराहना की जानी चाहिए। मीडिया को चाहिए कि इस मैच को पूरा कवरेज दे भले ही बीसीसीआई इस मामले में प्रायोजक उपलब्ध कराए अथवा नहीं। इस मैच में चाहे महिला क्रिकेट टीम हारे या जीते उसका मनोबल बढाने के लिए लोगों को आगे आना होगा।

तरह के मैच से एक तरफ युवतियों के मन से यह बात निकल सकेगी कि वे किसी भी मामले में पुरूषों के पीछे हैं और दूसरी तरफ उन्हें अपने फन को निखारने का मौका भी मिलेगा। कहने को खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा जिला स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक क्रीडा प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया जाता है, पर इनकी असलियत किसी से छिपी नहीं है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अनेक जिलों में इस तरह के आयोजन सरकारी धन के अपव्यय के अलावा और कुछ भी नहीं हैं। आज वक्त आ गया है कि जब पुरानी धारणाओं और वर्जनाओं को धवस्त कर नई ईबारत लिखी जाए।

ब्रितानियों के समय से चली आ रही नौकरशाही ने भारत में कम से कम खेलों के बढावे के लिए कोई ठोस कार्ययोजना तैयार नहीं की है। विडम्बना यही कही जाएगी कि भारत गणराज्य के शासन तंत्र में खेलों को गंभीर काम का दर्जा नहीं मिल सका है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारत में खेल महकमा खिलाडियो को बेहतर सुविधाएं और संसाधन मुहैया करवाने के लिए नही वरन् इससे जुडे जनसेवकों के लिए विदेश यात्राएं, भोग विलास, मीडिया की सुर्खियों में बने रहने का साधन बनकर रह गया है।

कितने आश्चर्य की बात है कि आजाद भारत में पहली बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहलवान खाशाबा जाधव को देश की महाराष्ट्र की सरकार द्वारा हेलसिंकी के ओलंपिक में भेजने आर्थिक मदद देने से मना कर दिया था। अपने शुभचिंतकों से धन जमा कर वह ओलंपिक में गया। कुल मिलाकर विश्व के सबसे बडे और मजबूत प्रजातंत्र के हर खम्बे को भारत में खेलों को बढावा देने के मार्ग प्रशस्त करना होगा, वरना भारत में गली मोहल्लों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बस एक ही खेल रह जाएगा और वह होगा क्रिकेट।
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चिकित्सा कर क्यो नहीं लगाती सरकार!

चिकित्सा कर क्यो नहीं लगाती सरकार!

एक कर से सभी रोगों का इलाज संभव

(लिमटी खरे)


भारत को आजाद हुए बासठ साल से अधिक बीत चुके हैं। मानव जीवन में अगर कोई बासठ बसंत देख ले तो उसे उमरदराज माना जाता है। सरकार भी बासठ साल की आयु में अपने कर्तव्य से सरकारी कर्मचारी को सेवानिवृत कर देती है। राजनीति में यह नहीं होता है। राजनीति में 45 से 65 की उमर तक जवान ही माना जाता है। इन बासठ सालों देश पर हुकूमत करने वाली सरकारें अपनी ही रियाया को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने में नाकाम रहीं हैं, इससे ज्यादा और शर्म की बात हिन्दुस्तान के लिए क्या हो सकती है।

अपने निहित स्वार्थों की बलिवेदी पर भारत के हितों को अब तक कुबाZन ही किया गया है, यहां के जनसेवकों ने। देश में सरकारी तौर पर आयुZविज्ञान (मेडिकल), आयुर्वेदिक, दंत, और होम्योपैथिक कालेज का संचालन किया जाता रहा है। अब तो निजी क्षेत्र की इसमें भागीदारी हो चुकी है। भारत में न जाने कितने चिकित्सक हर साल इन संस्थाओं से पढकर बाहर निकलते हैं। इन चिकित्सकों को जब दाखिला दिलाया जाता है तो सबसे पहले दिन इन्हें एक सौगंध खिलाई जाती है, जिसमें हर हाल में बीमार की सेवा का कौल दिलाया जाता है। विडम्बना ही कही जाएगी कि पढाई पूरी करने के साथ ही इन चिकित्सकों की यह कसम हवा में उड जाती है।


हाल ही में भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) ने केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को सुझाव दिया है कि एमबीबीएस की डिग्री के बाद अगर कोई विद्यार्थी तीन साल तक ग्रामीण अंचलों में सेवा का वायदा करे तो स्नातकोत्तर की परीक्षा में 25 फीसदी आरक्षण लागू किया जाए। सवाल यह उठता है कि इस व्यवसायिक पाठ्यक्रम में प्रलोभन का क्या काम।

भारत को भी अन्य देशों की भांति चिकित्सा की डिग्री के उपरांत पंजीयन के पहले यह शर्त रख देना चाहिए कि सुदूर ग्रामीण अंचलों और पहुंच विहीन क्षेत्रों में कम से कम छ: माह, विकासखण्ड, तहसील और जिला मुख्यालय से निर्धारित दूरी में एक साल तक सेवाएं देने वाले चिकित्सकों का सशर्त पंजीयन किया जाएगा कि वे अपनी सेवाओं का प्रमाणपत्र जब जमा करेंगे तब उनका स्थाई पंजीयन किया जाएगा।

इसके अलावा अगर केंद्र सरकर विदेशों की तरह स्वास्थ्य कर लगा दे तो सारी समस्या का निदान ही हो जाएगा। सरकार को चाहिए कि न्यूनतम सालाना शुल्क पर साधारण और कुछ अधिक शुल्क पर असाध्य बीमारियों का इलाज एकदम मुफ्त मुहैया करवाए। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले इस कर से मुक्त रखे जाएं। अगर एसा हुआ तो चिकित्सकों की जमी जकडी दुकानों पर ताले लगने में देर नहीं लगेगी। मोटी कमाई करने वाले मेडिकल स्टोर और दवा कंपनियों के मेडिकल रिपरजेंटेटिव भी अपना का समेटने लग जाएंगे। जब अस्पताल में ही इलाज और दवाएं मुफत में मिलेंगी तो भला कोई निजी चिकित्सकों के पास क्यों जाएगा। इससे निजी तौर पर चिकित्सा पूरी तरह प्रतिबंधित हो जाएगी। डिग्री धारी चिकित्सक सरकारी तौर पर ही इलाज करने को बाध्य होंगे।



एक खबर के अनुसार आने वाले चार सालों में भारत पर डेढ सौ से ज्यादा समय तक राज करने वाले ब्रिटेन से लगभग पच्चीस हजार चिकित्सक भारत लौटने के इच्छुक हैं। इनकी वतन वापसी से अखिल भारतीय आयुZविज्ञान संस्थान की बिहार, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, उडीसा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में खुलने वाली नई शाखाओं में चिकित्सकों के टोटे से निजात मिलने की उम्मीद है।

आज हिन्दुस्तान में चिकित्सा सुविधाओं का आलम यह है कि देश में 45 करोड से भी अधिक लोगों को अने निवास के इर्द गिर्द सवास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं हो पाती हैं। देश में औसतन 10 हजार लोगों के लिए अस्पतालों में सिर्फ सात बिस्तर मौजूद हैं, जिसका औसत विश्व में 40 है। भारत में हर साल तकरीबन 41 हजार चिकित्सकों की आवश्यक्ता है, जबकि देश में उपलब्धता महज 17 हजार ही है।


सौ टके का सवाल यह है कि अस्सी के दशक के उपरांत चिकित्सकों का ग्रामीण अंचलों से मोह क्यों भंग हुआ है। इसका कारण साफ है कि तेज रफ्तार से भागती जिंदगी में भारत के युवाओं को आधुनिकता की हवा लग गई है। कहने को भारत की आत्मा गांव में बसती है मगर कोई भी स्नातक या स्नातकोत्तर चिकित्सक गांव की ओर रूख इसलिए नहीं करना चाहता है, क्योंकि गांव में साफ सुथरा जीवन, बिजली, पेयजल, शौचालय, शिक्षा, खेलकूद, मनोरंजन आदि के साधानों का जबर्दस्त टोटा है। भारत सरकार के गांव के विकास के दावों की हकीकत देश के किसी भी आम गांव में जाकर बेहतर समझी और देखी जा सकती है।

इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर केंद्र में काबिज हुई कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार द्वारा अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में ग्रामीण स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की शुरूआत की थी। 2005 में इसी के अंतर्गत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को भी आरंभ किया गया था। अपने अंदर वास्तव में ग्रामीणों को स्वस्थ्य रखने की अनेक योजनाओं को अंगीकार किए इस मिशन की असफलता के पीछे यह कारण है कि इसे बिना पूरी तैयारी किए हुए ही आनन फानन में लागू कर दिया गया।


दरअसल इस मिशन की सफलता चिकित्सकों पर ही टिकी थी, जो ग्रामीण अंचलों में सेवाएं देने को तैयार हों। अमूमन देश के युवा चिकित्सक बडे और नामी अस्पतालों में काम करके अनुभव और शोहरत कमाना चाहते हैं, फिर वे अपना निजी काम आरंभ कर नोट छापने की मशीन लगा लेते हैं। अस्पतालों में मिलने वाले मिक्सचर (अस्सी के दशक तक दवाएं अस्पताल से ही मुफ्त मिला करतीं थीं, जिसमें पीने के लिए मिलने वाली दवा को मिक्सचर के आम नाम से ही पुकारा जाता था) में राजनीति के तडके ने जायका इस कदर बिगाडा कि योग्य चिकित्सकों ने सरकारी अस्पतालों को बाय बाय कहना आरंभ कर दिया।

आज देश भर में दवा कंपनियों ने चिकित्सकों के साथ सांठगांठ कर आम जनता की जेब पर सीधा डाका डाला जा रहा है। लुभावने पैकेज के चलते चिकित्सकों की कलम भी उन्हीं दवाओं की सिफारिश करती नजर आती है, जिसमें उन्हें दवा कंपनी से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर लाभ मिल रहा हो। चिकित्सकों को पिन टू प्लेन अर्थात हर जरूरी चीज को मुहैया करवा रहीं हैं, दवा कंपनियां।

इस साल केंद्र सरकार ने एक अनुकरणीय कदम उठाकर चिकित्सकों के पेट पर लात जमा दी है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक जनवरी से चिकित्सकों के लिए नई आचार संहिता जारी कर दी है। अब चिकित्सक दवा कंपनियों से न तो कोई उपहार ले सकेंगे और न ही कंपनी के पैसे पर देश विदेश की सैर कर सकेंगे। दरअसल, चिकित्सक और दवा कंपनियों की सांठगांठ से मरीज की जेब ही हल्की होती है। अनेक नर्सिंग होम के संचालकों के परिवार को दवा कंपनियां न केवल विदेश यात्रा करवातीं हैं, बल्कि उनके लिए शापिंग का प्रबंध भी करती हैं। अब अगर एसा पाया गया तो चिकित्सक पर कार्यवाही कर उसकी चिकित्सक की डिग्री भी रद्द किए जाने का प्रावधान है।

केंद्र सरकार की हेल्थ मिनिस्ट्री ने अब एमसीआई के सहयोग से ग्रामीण क्षेत्रों में मेडिकल के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने पर विचार आरंभ किया है। यहां से पढकर निकले चिकित्सक पूरी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में ही अपनी सेवाएं देने प्रतिबद्ध होंगे। इतना ही नहीं इनके लिए संस्थानों की स्थापना भी ग्रामीण क्षेत्रों में ही की जाएगी। अगले माह फरवरी में होने वाले सम्मेलन में इसको मूर्तरूप दिया जा सकता है। सुई का कांटा फिर वही अटक जाएगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव के चलते इसमें छात्र तो प्रवेश ले लेंगे, किन्तु उन्हें पढाने वाले शिक्षक क्या गांव की ओर रूख करना पसंद करेंगे।

इस सबसे उलट छत्तीसगढ में सच्चे चिकित्सकों की तस्वीर भी दिखाई पडती है। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से डिग्री हासिल करने वाले चिकित्सकों ने रायुपर से लगभग 120 किलोमीटर दूर गनियारी गांव में एक अनूठा खपरेल वाला अस्पताल खोला है। दिल्ली निवासी डॉ. योगेंद्र जैन और गुडगांव निवासी डॉ.रमन कटियार ने एम्स से एमबीबीएस किया है। इन दोनों ने पिछले लगभग एक दशक पूर्व इस गांव में जनस्वास्थ्य केंद्र की आधार शिला रखी। आज कारवां इतना आगे बढ गया कि यहां दस चिकित्सक हैं जिनमें से नौ एमडी हैं और पांच ने तो एम्स से एमडी की है। ये आज 1500 के तकरीबन गांव वालों का इलाज कर रहे हैं। लोगों के मुंह से इन्हें देखकर बरबस ही निकल पडता है, इन्हें डालर नहीं दुआ कमानी थी जनाब।
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Saturday, January 9, 2010

भोजपुरी दोहे: ---आचार्य संजीव 'सलिल'

भोजपुरी दोहे:




आचार्य संजीव 'सलिल'



कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.

कनके संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..



कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.

नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..



गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोइ नीच.

मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..



नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.

साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..



खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.

धुप-छाँव सम छनिक बा, मन अउर अपमान..



सहारण में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.

केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..



फुनवा के आगे पडल, चीठी के रंग फीक.

सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..



बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.

दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..



दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.

एक कम दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..



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Monday, January 4, 2010

कायस्थ परिवार पत्रिका

जो लोग इस ब्लॉग के सदस्य आहें कृपा कर अपने आलेख यहाँ पोस्ट करे ताकि अगले अंक मे प्रिंट के लिये छांटे जा सके । जो लोग जुड़ना चाहे कमेन्ट मे अपनी सहमति भेजे
लेखक का कायस्थ होना जरुरी हैं पर लेख कायस्थों के ऊपर हो ऐसा जरुरी नहीं हैं

Friday, January 1, 2010

शुभ कामनाएं सभी को... --संजीव "सलिल"

शुभ कामनाएं सभी को...



संजीव "सलिल"


salil.sanjiv@gmail.com

divyanarmada.blogspot.com


शुभकामनायें सभी को, आगत नवोदित साल की.

शुभ की करें सब साधना,चाहत समय खुशहाल की..


शुभ 'सत्य' होता स्मरण कर, आत्म अवलोकन करें.

शुभ प्राप्य तब जब स्वेद-सीकर राष्ट्र को अर्पण करें..


शुभ 'शिव' बना, हमको गरल के पान की सामर्थ्य दे.

शुभ सृजन कर, कंकर से शंकर, भारती को अर्ध्य दें..


शुभ वही 'सुन्दर' जो जनगण को मृदुल मुस्कान दे.

शुभ वही स्वर, कंठ हर अवरुद्ध को जो ज्ञान दे..


शुभ तंत्र 'जन' का तभी जब हर आँख को अपना मिले.

शुभ तंत्र 'गण' का तभी जब साकार हर सपना मिले..


शुभ तंत्र वह जिसमें, 'प्रजा' राजा बने, चाकर नहीं.

शुभ तंत्र रच दे 'लोक' नव, मिलकर- मदद पाकर नहीं..


शुभ चेतना की वंदना, दायित्व को पहचान लें.

शुभ जागृति की प्रार्थना, कर्त्तव्य को सम्मान दें..


शुभ अर्चना अधिकार की, होकर विनत दे प्यार लें.

शुभ भावना बलिदान की, दुश्मन को फिर ललकार दें..


शुभ वर्ष नव आओ! मिली निर्माण की आशा नयी.

शुभ काल की जयकार हो, पुष्पा सके भाषा नयी..


शुभ किरण की सुषमा, बने 'मावस भी पूनम अब 'सलिल'.

शुभ वरण राजिव-चरण धर, क्षिप्रा बने जनमत विमल..


शुभ मंजुला आभा उषा, विधि भारती की आरती.

शुभ कीर्ति मोहिनी दीप्तिमय, संध्या-निशा उतारती..


शुभ नर्मदा है नेह की, अवगाह देह विदेह हो.

शुभ वर्मदा कर गेह की, किंचित नहीं संदेह हो..


शुभ 'सत-चित-आनंद' है, शुभ नाद लय स्वर छंद है.

शुभ साम-ऋग-यजु-अथर्वद, वैराग-राग अमंद है..


शुभ करें अंकित काल के इस पृष्ट पर, मिलकर सभी.

शुभ रहे वन्दित कल न कल, पर आज इस पल औ' अभी..


शुभ मन्त्र का गायन- अजर अक्षर अमर कविता करे.

शुभ यंत्र यह स्वाधीनता का, 'सलिल' जन-मंगल वरे..

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