Saturday, February 20, 2010

'गोत्र' तथा 'अल्ल' acharya sanjiv 'salil'

'गोत्र' तथा 'अल्ल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.

Tuesday, February 16, 2010

दुई घाटन के बीच

तीन दिनों के लिए संस्थान की ओर से महाकुम्भ की कवरेज के लिए हरिद्वार में था....दिन भर खबरें तलाशने के बाद जब सब सो रहे होते थे....मैं कुम्भ के तिलिस्म....देश की संस्कृति और जनजीवन के रहस्य टटोलने....या शायद खुद का भी वजूद तलाशने हरिद्वार की गलियों...घाटों....और नागाओं के साथ साथ आम आदमी के शिविरों को घूमा करता था.....ऐसे में ही एक दिन दो घाटों के बीच दोनो ओर देखते हुए कुछ सवाल उठे जो कविता बन गए......


देवापगा की

इस सतत प्रवाहमयी

प्रबल धारा के साथ

बह रहे हैं

पुष्प

बह रहे हैं

चमक बिखेरते दीप

स्नान कर

पापों से निवृत्त होने का

भ्रम पालते लोग

अगले घाट पर

उसी धारा में

बह रहे हैं

शव

प्रवाहित हैं अस्थियां

तट पर उठ रही हैं

चिताओं से ज्वाला

दोनों घाटों के बीच

रात के तीसरे पहर

मैं

बैठा हूं

सोचता हूं

क्या है आखिर

मार्ग निर्वाण का?

पहले घाट पर

जीवन के उत्सव में...

दूसरे घाट पर

मृत्यु के नीरव में....?

या फिर

इन दोनों के बीच

कहीं

जहां मैं बैठा हूं.....

मयंक सक्सेना -12-02-2010, हरिद्वार