Monday, December 21, 2009

दोहा गीतिका --.'सलिल'

(अभिनव प्रयोग)



दोहा गीतिका


'सलिल'

*

तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।

तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?


बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।

बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।


दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर

वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।


फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।

भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।


हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।

प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।


सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।

हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।


हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।

बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।


हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।

खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।


तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।

शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।

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तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..

2 comments:

  1. बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।

    बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

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  2. बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।

    बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
    .........

    फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।

    भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

    Kya baat kahi hai aapne....nirvastra yatharth ko udbhedit karti sundar rachna...

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